श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
62. वन में गौओं का भटक कर कालिय-ह्नद (कालीदह) के समीप पहुँचना और प्यासी होने के कारण वहाँ का विषैला जल पीकर प्राण शून्य हो गिर पड़ना, गोप-बालकों का भी उसी प्रकार निश्चेष्ट होकर गिर पड़ना; श्रीकृष्ण का वहाँ आकर उन सबको तथा गौओं को करुणा पूर्ण दृष्टि मात्र से पुनर्जीवित कर देना और सबसे गले लगकर एक साथ मिलना
वास्तव में तो सृजन-संहार से परे, आदि-अन्त विहीन नित्य जीवन में अवस्थित इस भगवत्पार्षदों के लिये प्राणशून्य होने की बात बनती नहीं। यह तो अघटन घटना-पटीयसी योगमाया का ही वैभव है। नीलसुन्दर की लीला मन्दाकिनी का, उससे निस्सृत प्रतिक्षण नूतन रस-प्रवाह का सौन्दर्य और भी निखर उठे, इस उद्देश्य से उनके प्राण आच्छादित हो गये हैं। योगमाया के अञ्चल की छाया में उनके उन चिन्मय प्राणों का व्यापार अदृश्य बन गया है, स्थगित मात्र हो गया है, और वे उस रूप में दीख पड़ रहे हैं। यह एक विचित्र-सी मूर्छा है उनकी-
जो हो, यहाँ जब इतना हो चुका, तब कहीं श्रीकृष्णचन्द्र सखाओं को ढूँढ़ते हुए सघन वन की सीमा पारकर इस शुष्क वृक्ष शून्य भू भाग पर आये और तत्क्षण दूर से ही उनकी दृष्टि इस करुण दृश्य पर भी जा पहुँची। उस समय व्रजेन्द्र नन्दन की कैसी दशा हुई- ओह! स्वयं वाग्वादिनी में भी शक्ति कहाँ है जो इस पर किंचिन्मात्र प्रकाश दे सकें। करुणा सिन्धु व्रजेन्द्र नन्दन के अन्तस्तल में उष्छलित कृपामयी ऊर्मियों का, किसी एक करुणा लहरी के एक कण का भी वास्तविक चित्रण आज तक कहीं किसी के द्वारा भी हुआ जो नहीं। यत्किंचित चित्रण होता है, हो सकता है तो केवल उनके बाह्य अनुभावों को लेकर ही सो भी उनकी चरणनख चन्द्रिका का प्रकाश बुद्धि में, मन-प्राण-इन्द्रियों में परिव्याप्त हो जाय और उस आलोक में उन चिन्मय अनुभावों के दर्शन हों तब। अत एव किसी भी बड़ भागी लीलादर्शी के प्राणों की झंकृति भी वाणी द्वार से इतना ही व्यक्त कर सकती है- एक मुहूर्त के अनन्तर श्रीकृष्णचन्द्र वहाँ आये थे और तुरंत दूर से ही उन्होंने उन सबको प्राण रहित देख भी लिया। विद्युत-वेग से घटना स्थल पर भी वे आ पहुँचे। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (सारार्थदर्शिनी)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज