श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
62. वन में गौओं का भटक कर कालिय-ह्नद (कालीदह) के समीप पहुँचना और प्यासी होने के कारण वहाँ का विषैला जल पीकर प्राण शून्य हो गिर पड़ना, गोप-बालकों का भी उसी प्रकार निश्चेष्ट होकर गिर पड़ना; श्रीकृष्ण का वहाँ आकर उन सबको तथा गौओं को करुणा पूर्ण दृष्टि मात्र से पुनर्जीवित कर देना और सबसे गले लगकर एक साथ मिलना
अस्तु, ग्रीष्म ताप से व्यथित वे गायें आते ही उस जल-प्रवाह में मुँह डाल कर प्यास शान्त करने लगीं। श्रीयमुना की उस अमृत तिरस्कारिणी धारा का ही वे सदा पान करती आयी हैं, इस धारा ने सदा ही उनके प्राणों में शीतलता का संचार किया है; इसलिये ही नित्य के अभ्यास वश सबने जल पीना आरम्भ किया। किंतु आज वह चिरपरिचित तृप्ति उन्हें न मिली- तृप्ति दूर, वारि स्पर्श मात्र से कण्ठ में कुछ बूँदें उतरने भर से उनके प्राण झुलसने लगे। वे पशु इस बात को नहीं जानते कि यहाँ- तपन तनया के इस ह्नद में ही कालिय नाग का निवास है, उसके सम्पर्क से इस ह्नद का प्रत्येक जलकण विषपूर्ण हो चुका है ; उन्हें इसका जलपान तो क्या, इसकी सीमा में प्रविष्ट नहीं होना चाहिये था। और इस ज्ञान के अभाव में ही स्वभाववश वे इस सद्यः प्राणहारक जल को स्पर्श कर चुके थे, उसका कुछ अंश पी चुके थे। इसीलिये जो परिणाम होना था, वही हुआ। एक ही साथ सबके शरीरों में, उनके स्नायु जाल के प्रत्येक कण में आग-सी जल उठी और देखते-ही-देखते वे सब-की-सब गायें वहीं- उस तट पर ही प्राण शून्य हो कर गिर पड़ीं तथा उनके पालक वर्ग, ओह! लीला शक्ति की भी विचित्र महिमा है। उन मूक गो-समूहों के लिये तो, पशु स्वभाववश उन्होंने जलपान कर लिया, यह हेतु किसी अंश में समीचीन बन सकता है- किसी अंश की बात इसीलिये कि सचमुच ही सच्चिदानन्द परब्रह्म पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र की लीला में उपकरणभूता ये गायें प्राकृत सृजन की वस्तुएँ नहीं हैं; किंतु वे श्रीदाम, सुबल आदि गोप शिशु तो प्रायः सभी जानते थे कि एक महासर्प का उस ह्नद में निवास है। वे अपनी पिता-पितृव्यों से सुन चुके थे; वहाँ उस स्थान की ओर पैर रखने के लिये सर्वथा निवारित हो चुके हैं। फिर भी उनका वह ज्ञान उस समय लुप्त हो गया। हतबुद्धि-से हुए वे भी अतिशय दु्रत वेग से दौड़ कर उन गायों के पीठ-पीछे आ पहुँचे। इतना ही नहीं, वे आये थे इस उद्देश्य से कि शीघ्र-से-शीघ्र इन पशुओं को पीछे की ओर हाँक लायेंगे, किंतु यहाँ आने पर वह स्मृति भी किसी ने पोंछ दी। उन्हें प्यास तो थी ही, उन सबने भी अपनी अञ्जलि उस प्रवाह में डाल ही दी, अञ्जलि का किंचिन्मात्र जल अपने कण्ठ में भी डाल ही लिया। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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