श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
62. वन में गौओं का भटक कर कालिय-ह्रद (कालीदह) के समीप पहुँचना और प्यासी होने के कारण वहाँ का विषैला जल पीकर प्राण शून्य हो गिर पड़ना, गोप-बालकों का भी उसी प्रकार निश्चेष्ट होकर गिर पड़ना; श्रीकृष्ण का वहाँ आकर उन सबको तथा गौओं को करुणा पूर्ण दृष्टि मात्र से पुनर्जीवित कर देना और सबसे गले लगकर एक साथ मिलना
इधर गायें तो सघनवन की सीमा में उस पार जा पहुँची थी तथा इतनी दूर बड़े वेग से दौड़ कर तृषित हो चुकी थीं। यही हाल उनके पालक वर्ग गोप-शिशुओं का था। ऊपर निदाघ के सूर्य तप रहे थे। वनस्थली के इस भाग में वृक्षों की शीतल छाया भी समाप्त हो चुकी थी। उन्मुक्त गगन था और नीचे की धरती वहाँ- बस, सम्पूर्ण वृन्दावन में एकमात्र उस देश-विशेष में ही- हरितिमा शून्य-सी हो रही थी। अत्यन्त निकट में ही तपन तनया के सुन्दर मञ्जुल प्रवाह के दर्शन अवश्य हो रहे थे। पर वहाँ तट पर भी केवल एक कदम्ब तरु के अतिरिक्त किसी भी वृक्ष का चिह्न न था। आश्चर्य है, वहाँ तृण, वीरुध उग तक नहीं सके थे। बस, केवल रवि नन्दिनी श्रीयमुना की लहरें ही वहाँ एकमात्र आकर्षण की वस्तु थीं। विशेषतः तृषित गायें उन्हें देख लनेे के अनन्तर, इस मध्याह्न के समय वहाँ जा कर जलपान के द्वारा अपनी तृषा शान्त करने का लोभ संवरण कर सकें- यह कैसे सम्भव था। इसीलिये स्वाभाविक ही गायें उस ओर ही मुड़ी और पालक तो उनके पीछे चलेंगे ही। इस प्रकार सभी उस निर्वृक्ष तट पर ही जा पहुँचे; व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्णचन्द्र की अचिन्त्य-लीला-महाशक्ति उन्हें वहाँ उस प्रसिद्ध कालिय-ह्रद पर ले आयीं, जहाँ नीलसुन्दर की कालिय दमन-लीला का प्रकाश होगा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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