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‘इसने दाऊ दादा को मुरली के स्वर से ही सुलाया था।’- सरल स्नेहार्द्रचित्त हुए शिशुओं की इस चिन्ता का पार नहीं। आखिर सोचते-सोचते उपाय ध्यान में आ ही गया- ‘वंशी न सही, हम गीत गा कर ही कन्नू को सुला देंगे।’ तथा यह विचार उदय होते-न-होते उन बालकों के कण्ठ से पीयूष की वर्षा-सी आरम्भ हुई। अपनी भावना के गीत, व्रजसुन्दरियों के मुख से सुने हुए श्री कृष्ण-सुयश के गान, व्रजराज के वन्दीजन-चारण-नटों से सुनी हुई गीत-रचनाएँ- इनमें जहाँ जिसका मन डूबा, उसी को वह अतिशय मनोहर मन्द मधुर प्रेमार्द्र स्वर में गाने लग गया -
- अन्ये तदनुरूपाणी मनोज्ञानि महात्मन:।
- गायन्ति स्म महाराज स्नेहक्लिन्नधिय: शनै:॥[1]
- कोइ अति मधुर-मधुर सुर गावत।
- साँवरे कुँवरहि नींद अनावत।।
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