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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
61. श्रीकृष्ण का वृन्दावन-विहार
आश्चर्य है- इतने शान्त वातावरण का निर्माण ये अतिशय चञ्चल गोप शिशु भी कर सकते हैं! वन्य-विहंगमों के रव के अतिरिक्त कहीं कोई भी शिशु नहीं; क्योंकि तनिक-सा बोलते ही उनके कन्हैया भैया सो जो नहीं पायेंगे। यह प्रेम जनित भय सबके मन में भरा है। अद्भुत नीरवता के बीच सभी सेवाएँ सम्पन्न हो रही है। किसी शिशु के चलने से शुष्क पत्रों की ‘मर्मर’ ध्वनि भी न हो- इतनी सावधानी रखी जा रही है। किंतु यह लो, श्रीकृष्णचन्द्र ने तो आँखें खोल लीं और वे हँसने लगे। पूछने पर यह कह दिया- ‘भैयाओ! क्या करूँ, नींद आयी नहीं तो कितनी देर नेत्र बंद रखूँ, तुम्हीं बताओ!’ सचमुच नीलसुन्दर सो ही कैसे सकते थे। अग्रज बलराम की जैसे-जैसे जो-जो परिचर्याएँ उन्होंने की हैं, वैसी-की-वैसी सब विधियाँ हुए बिना ही यदि वे तन्द्रित हो जायँ, तब तो अचिन्त्य लीला महाशक्ति के हृत्पट पर अंकित शिशुओं के मनोभाव के चित्रों का कोई मूल्य ही नहीं रहे। स्पष्ट तो है- शिशुओं ने निर्निमेष नेत्रों से देखा है, किस प्रकार कन्हैया भैया ने दाऊ दादा को विश्राम कराया। तथा तत्क्षण उसमें वासना जाग उठी थी- ‘हम भी कन्हैया की ऐसी ही सेवा करेंगे।’ फिर कन्हैया कैसे भूल जायँ उनकी प्रेम सेवा स्वीकार करने की बात। और कदाचित् बाल्या वेश के प्रवाह में वे भूल ही रहें, तो भी क्या हुआ; अचिन्त्य लीला महाशक्ति नहीं ही भूलेंगी। समय पर अपने-आप वैसा सब कुछ हो ही जायगा, हुआ ही। शिशु व्यग्र हो कर विचार करने लगे। किंतु नीलसुन्दर की भाँति वंशी में लोकोत्तर स्वर भरना तो उन्हें आता नहीं। आज से बहुत पूर्व- जिस दिन अघासुर के संसरण का अन्त हुआ था। यह निर्णय हो चुका है- ‘देखो, जब कन्नू की वंशी बजे, तब हममें से कोई भी उस समय उसका अनुसरण न करे। अन्यथा हम सभी इस परम सुख के पूर्ण उपयोग से वञ्चित रह जायँगे। और बातों में कन्नू को हरायें, वह तो हारेगा ही; पर वंशी वादन में उसकी होड़ करने न जायँ।’ फिर अपने कन्नू को वे कैसे किस उपाय से सुलायें? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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