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इस प्रकार नये-नये कौतुक करते हुए श्रीकृष्णचन्द्र वन में न जाने कितनी दूर चले जाते हैं। क्षण भर के लिये भी कहीं विश्राम नहीं, उन शिशुओं को भी तनिक-सी श्रान्ति का भान नहीं। उनकी यह क्रीड़ा अविराम चलती ही रहती है। अग्रज श्रीबलराम भी अनुज के प्रत्येक खेल में सम्मिलित हैं ही। इस मण्डल में सबसे अधिक बलशाली भी वे ही हैं। पर आश्चर्य यह है कि यदि कहीं क्रीड़ा श्रमजन्य एक सुन्दर-सी क्लान्ति आती है तो वह आयेगी सर्वप्रथम श्रीरोहिणी नन्दन के गौर मुखार विन्द पर ही और जहाँ यह हुआ कि श्रीकृष्णचन्द्र सब कुछ छोड़ कर अपनी वाम भुजा से श्रीबलराम के कण्ठ को वेष्टित कर लेंगे एवं दक्षिण करपल्लव से अपने पीताम्बर लेकर अग्रज का मुख पोंछते हुए पूछेंगे ही - ‘दादा! अब तो तुम थक गये दीखते हो!’ तथा उस समय अग्रज वास्तव में थके हैं या अनुज के प्रति उमड़ा हुआ अन्तस्तल का स्नेह ही स्वेद बिन्दुओं के रूप में व्यक्त हुआ है, श्रीकृष्णचन्द्र को क्रीड़ा से विरत करके विश्राम करा देने की भावना ही क्लान्ति रूप में बाहर आयी है- इसका कोई निर्णय न होने पर भी श्री बलराम के मुख से निश्चय ही यह उत्तर मिलेगा- ‘हाँ रे भैया कृष्ण! मैं तो थक गया रे!’ तो आज भी ऐसा ही हुआ और इसलिये अब दूसरा आयोजन होना ही है। बस, तुरंत ही समीपवर्ती उस विशाल वट की स्निग्ध शीतल छाया में मण्डली जा विराजती है। वहाँ अतिशय मनुहार पूर्वक श्रीबलराम की परिचर्या आरम्भ होती है।
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