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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ88 ( सखी कहती है- सखी ! ) हमने कान्हाईको इस प्रकार देखा । मस्तकपर मयूरपिच्छ मुखपर बिखरी अलके कानोंमें कुण्डल शोभा दे रहे है । टेढी भौंहे नुकीले नेत्र मनोहर छटा देती नासिका लाल ओठ और दन्तपंक्तियोकी ऐसी कान्ति कि अनारके दाने भी अपने शरीरसे लजा जायँ ! गलेमे मोतोयोंकी माला तथा वनमाला हाथीकी सूँडकी भाँति भुजदण्ड झुंड बनाकर नाभिरुपी सरोवरको जाती हुई बगुलोंकी पंक्तिके समान मनोहर रोमावली कमरमें पीताम्बर और सोनेकी करधनी मनोहर जाँघे और दोनो पिंडलियाँ कमलके समान चरणके नखोंकी समता चन्द्रमा भी नही कर सकते । सूरदासजी कहते है- ऐसे सुजान ( श्यामसुन्दर ) है जिन्हे हमने देखा । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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