श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 87

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग कान्हरौ

76
राजत री बनमाल गरैं हरि आवत बन तैं।
फूलनि सौं लाल पाग लटकि रही बाम भाग
सो छबि लखि सानुराग टरति न मन तैं ॥1॥
मोर मुकुट सिर सिखंड गोरज मुख मंजु मंड
नटवर बर वेष धरैं आवत छबि तैं ।
सूरदास प्रभु की छबि ब्रज ललना निरखि थकित
तन मन न्यौछावर करैं आनँद बहु तै ॥2॥

( गोपी कहती है- ) सखी ! गलेमे वनमाला पहिने श्यामसुन्दर वनसे आते हुए बडी शोभा पा रहे है । फूलोंसे सजी लाल पगडी बायी ओर लटक रही है इस शोभाको प्रेमपूर्वक देखनेके बाद यह मनसे हटती ही नही । मस्तकपर मयूरपिच्छका ) मुकुट है मुख गायोंके खुरोंसे उडी धूलिसे सुशोभित है श्रेष्ठ नट-जैसा उत्तम वेष बनाये बडी छटासे आ रहे है । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामीकी ( यह ) शोभा देखकर व्रजकी स्त्रियाँ मुग्ध हो अत्यन्त आनन्दसे ( उनपर ) अपना तन-मन न्यौछावर कर देती है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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