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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ76 ( गोपी कहती है- ) सखी ! गलेमे वनमाला पहिने श्यामसुन्दर वनसे आते हुए बडी शोभा पा रहे है । फूलोंसे सजी लाल पगडी बायी ओर लटक रही है इस शोभाको प्रेमपूर्वक देखनेके बाद यह मनसे हटती ही नही । मस्तकपर मयूरपिच्छका ) मुकुट है मुख गायोंके खुरोंसे उडी धूलिसे सुशोभित है श्रेष्ठ नट-जैसा उत्तम वेष बनाये बडी छटासे आ रहे है । सूरदासजी कहते है- मेरे स्वामीकी ( यह ) शोभा देखकर व्रजकी स्त्रियाँ मुग्ध हो अत्यन्त आनन्दसे ( उनपर ) अपना तन-मन न्यौछावर कर देती है । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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