श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 80

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

Prev.png

श्रीकृष्णका व्रजागमन

69
नटवर भेष धरैं ब्रज आवत।
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल
कुटिल अलक मुख पै छबि पावत ॥1॥
भ्रकुटी बिकट नैन अति चंचल
इहि छबि पै उपमा इक धावत।
धनुष देखि खंजन बिबि डरपत
उडि न सकत उडिबे अकुलावत ॥2॥
अधर अनूप मुरलि सुर पूरत
गौरी राग अलापि बजावत।
सुरभी बृंद गोप बालक सँग
गावत अति आनंद बढावत ॥3॥
कनक मेखला कटि पीतांबर
निरतत मंद मंद सुर गावत।
सूर स्याम प्रति अंग माधुरी
निरखत ब्रज जन जे मन भावत ॥4॥

मोहन श्रेष्ठ नट-जैसा वेष धारण किये व्रज आ रहे है । मयूरपिच्छ मुकुट मकराकृत कुण्डल और घुँघराली अलके मुखपर शोभा पा रही है । टेढी भौंहे और अत्यन्त चञ्चल नेत्र है इस शोभापर ( तुलना करनेके लिये ) एक उपमा दौडती ( सूझती ) है कि धनुष देखकर खञ्जनका जोडा डरकर उडनेके लिये व्याकुल होते हुए भी उड न पाता हो । अनुपम ओठ वंशीमे सुर भरते हुए आलाप लेकर गौरी राग बजा रहे है गायोंके झुंड और गोप-बालकोंके साथ गाते हुए अत्यन्त आनन्द बढाते ( बडी प्रसन्नता प्रकट करते ) है । कमरमे सोनेकी करधनी और पीताम्बर पहिने नाचते एवं अत्यन्त मन्द ( कोमल ) स्वरमे गाते है । सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दरके प्रत्येक अंगका माधुर्य ऐसा ( आकर्षक ) है कि उसे देखना व्रजवासियोंके मनको ( अतिशय ) प्रिय लगता है ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः