श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 56

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग गौरी

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नंद नंदन मुख देखी माई !
अंग अंग छबि मनौ उए रबि ससि अरु समर लजाई ॥1॥
खंजन मीन भृंग बारिज मृग पर दृग अति रुचि पाई।
स्त्रुति मंडल कुंडल मकराकृत बिलसत मदन सदाई ॥2॥
नासा कीर कपोत ग्रीव छबि दाडिम दसन चुराई ।
द्वै सारँग बाहन पर मुरली आई देति दुहाई ॥3॥
मोहे थिर चर बिटप बिहंगम ब्योम बिमान थकाई।
कुसुमांजलि बरषत सुर ऊपर सूरदास बलि जाई ॥4॥

( गोपी कहती है- ) सखी ! नन्दनन्दनके मुखको ( तो ) देखो । अंगप्रत्यंगकी शोभा ऐसी है मानो सूर्य उदय हो गया है और चन्द्रमा तथा कामदेव दोनो लज्जित हो रहे है । ( इनके ) नेत्रोंने खञ्जन मछली भौंरे कमल और हरिणके नेत्रोंसे भी अधिक शोभा प्राप्त की है; कानोंके घेरेमे मकराकृत कुण्डलके रुपमे ( मानो साक्षात मीनकेतु ) कामदेव सदा क्रीडा किया करत है । नासिकाने तोते कण्ठने कबूतर और दाँतोने अनारके दानोंकी शोभा चुरा ली है और यह वंशी तो दो ( भुजाओंरुपी ) नागोंके वाहनपर विजयघोषणा करती हुई आ रही है । इसने स्थिर-चर वृक्ष-पक्षी-सबको मोह लिया है और आकाशके विमान स्तम्भित हो गये है । ऊपरसे देवता पुष्पाञ्जलिकी वर्षा कर रहे है । सूरदास ( इस शोभापर ) बलिहारी जाता है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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