श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 50

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग गौरी

41
मेरे नैन निरखि सुख पावत।
संझा समै गोप गोधन सँग बन तै बनि ब्रज आवत ॥1॥
उर गुंजा बनमाल मुकुट सिर बेनु रसाल बजावत।
कोटि किरनि मनि मुख परकासित उडपति कोटि लजावत ॥2॥
नटवर रुप अनूप छबीलौ सबहिनि कैं मन भावत।
गोप सखा सब बदन निहारत उर आनँद न समावत ॥3॥
चंदन खौर काछनी काछे देखत ही मन भावत।
सूर स्याम नागर नारिनि कौ बासर बिरह नसावत ॥4॥

( जब ) संध्याके समय गोपकुमारों तथा गायोंके साथ श्यामसुन्दर वनसे सजकर व्रजमे आते है ( तब उनको ) देखकर मेरे नेत्र सुखी होते है । वक्षःस्थलपर गुञ्जाहार और वनमाला तथा मस्तकपर मुकुट धारण किये रसमय मुरली बजाते है तब उनका करोडो सूर्योंके समान प्रकाशमान मुख करोडों चन्द्रोको भी लज्जित करता है । अनुपम शोभामय नटवर वेष सभीके मनको भाता है; ( जब ) सब गोपकुमार सखा ( मोहनके ) मुखको निहारते है तब उनके हृदयमे आनन्द समाता नही । चन्दनकी खौर लगाये तथा कछनी बाँधे हुए वे देखते ही मनको प्रिय लगते है । सूरदासजी कहते है कि श्यामसुन्दर गोकुल नगरकी स्त्रियोंके दिनभरका वियोग नष्ट करते हुए आते है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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