श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 39

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग बिलावल

30
भोर भएँ निरखत हरि कौ मुख
प्रमुदित जसुमति हरषित नंद।
दिनकर किरन कमल ज्यौं बिकसत
निरखत उर उपजत आनंद ॥1॥
बदन उधारि जगावति जननी
जागौ बलि गइ आनँद कंद ।
मनौ मथत सुर सिंधु फेन फटि
दयौ दिखाई पूरन चंद ॥2॥
जाकौं ईस सेष ब्रह्मादिक
गावत नेति नेति स्त्रुति छंद।
सो गुपाल ब्रज मैं सुनि सुरज
प्रघटे पूरन परमानंद ॥3॥

प्रातःकाल होनेपर श्यामसुन्दरका मुख देखते हुए यशोदाजी आनन्दित और नन्दजी ( उसी प्रकार ) हर्षित हो रहे हैं जैसे सूर्यकी किरणोंसे कमलको खिला देखकर हृदयमे आनन्द होता है । माता मुख खोलकर जगाती हुई कह रही हैं- ’ आनन्दकन्द ! मैं तुमपर बलिहारी जाती हूँ जागो ! ’ ( उस समय ऐसी शोभा होती है ) मानो सुरोद्वारा समुद्र-मन्थनके समय फेन फट जानेपर पूर्ण चन्द्रमा दिखलायी पडा हो । जिसके गुण शंकरजी शेषनाग और ब्रह्मादि देवता गाते है तथा वेदोंके मन्त्र ’ नेति-नेति ’ ( ऐसा नही वैसा नही ) कहकर ( निषेधमुखसे ) वर्णन करते है सूरदासजी कहते है सुना है व्रजमे वे ही पूर्ण परमानन्द गोपालके रुपमे प्रकट हुए है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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