श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 36

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग बिलावल

27.
देखो माई ! दधि सुत मैं दधि जात।
एक अचंभौ देखि सखी रीरिपु मैं रिपु जु समात ॥1॥
दधि पै कीरकीर पै पंकजपंकज के द्वै पात ।
यह सोभा देखत पशु पालक फूले अंग न मात ॥2॥
बारंबार बिलोकि सोचि चित नंद महर मुसुक्यात।
यहै ध्यान मन आनि स्याम कौ सूरदास बलि जात ॥3॥

कोई गोपी कहती है- सखी ! श्रीहरिके चन्द्र-मुखमे दधि पुत्रके अंदर पिताको जाते देखो । दूसरा आश्चर्य यह देखो कि शत्रु चन्द्र में शत्रु राहु प्रवेश कर रहा है मुख-चन्द्रमे श्यामवर्ण हाथरुप राहु समा रहा है । दधि दही-सने मुख पर तोता नासिका तोतेपर दो कमल नेत्र और उन कमलोके दो पत्ते कान है । यह शोभा देखते हुए गोप इतने प्रफुल्लित हो रहे है कि शरीरमे उमंग समाती नही । बार-बार देख और चित्तमे अपने लालकी छटाका विचार करके व्रजराज नन्दजी मुसकरा रहे है । ’ सूरदासजी श्यामसुन्दरके इसी रुपका चित्तमे ध्यान लाकर उनपर बलिहारी जाते है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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