श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 3

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग बिहागरौ

3
देवकी मन मन चकित भई ।
देखौ आइ पुत्र मुख काहे न ऐसी कहुँ देखी न दई ॥1॥
सिर पै मुकुट पीत उपरैना भृगु पद उर भुज चारि धरें ।
पूरब कथा सुनाइ कही हरि तुम माग्यौ इहि भेष कर ॥2॥
छोरे निगड सुआए पहरु द्वारे कौ कपाट उघर्यो ।
तुरत मोहि गोकुल पहुँचावौ यौं कहि कैं सिसु बेष धरर्यो‍ ॥3॥
तब बसुदेव उठे यह सुनतै हरषवंत नँद भवन गए ।
बालक धरि लै सुरदेवी कौं आई ’ सूर ’ मधुपरी ठए ॥4॥

देवकीजी मन -ही -मन चकित हुईं। ( वे वसुदेवजीसे बोली - ) ’ पुत्रका मुख आकर क्यो नही देखते ? हे भगवन ! ऐसा पुत्र होते तो कही नही देखा। इनके सिरपर मुकुट है पीला उपरना ( दुपट्टा ) ओढे है हृदयमे भृगुका चरणचिह्न है और चार भुजाएँ धारण किये है। तब श्रीहरिने पूर्वजन्मकी कथा * सुनाकर कहा - ’ तुमने इसी वेषमे मुझे ( पुत्ररुपमे ) माँगा था। भगवानने ( अपनी मायासे वसुदेवजीकी ) हथकडी -बेडी खोल दी ( कारागरके ) पहारेदारोंको सुला दिया और द्वारके किवाड भी ( अपने -आप ) खुल गये। ’ मुझे तुरंत गोकुल पहुँचा दो ’ यह कहकर ( भगवानने ) शिशुका रुप धारण कर लिया। ( भगवानकी वह बात सुनते ही ) वसुदेवजी उठे और हर्षित होकर ( गोकुलमे ) नन्द -भवनको चले गये। वहाँ अपने बालकको रखकर और ( यशोदाजीकी कन्यारुपमे जन्मी ) महामाया भगवतीको ले आकर -सूरदासजी कहते है - वसुदेवजी मथुरा मे रहने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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