श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 15

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग कान्हारौ

11
गोद लिएं जसुधा नँद नंदै।
पीत झगुलिया की छबि छाजति
बिज्जुलता सोहति मनु कंदै ॥1॥
बाजीपति अग्रज अंबा तेहि
अरक थान सुत माल गुंदै।
मानौ स्वर्गहि तैं सुरपति रिपु
कन्या सौति आइ ढरि सिंधै ॥2॥
आरि करत कर चपल चलावत
नंद नारि आनान छवै मंदै।
मनौ भुजंग अमी रस लालच
फिरी फिरी चाटत सुभग सुचंदै ॥3॥
गूँगी बातनि यौं अनुरागत
भँवर गुंजरत कमलन बंदै।
सूरदास स्वामी धनि तप किए
बडे भाग जसुधा औ नंदै ॥4॥

श्रीयशोदाजी नन्दनन्दको गोदमें लिये है। ( श्यामसुन्दरके शरीरपर ) पीला झगला ( बिना बाँहका कुर्ता ) ऐसी शोभा पा रहा हैमानो मेघपर बिजली सुभोभित हो। काले रेशममे पिरोई हुई मोतियोकी माला धारण की हुई है( जो ऐसी लगती है ) मानो स्वर्णसे आकर गंगाजी समुद्रमे मिल रही हैं। मचलते हुए चञ्चल हाथ चला-चलाकर श्रीनन्दरानीके मुखको धीरेसे ( जाकर ) छू लेते है; ( उस समय ऐसा जान पडता है ) मानो अमृतरसके लोभसे सर्प सुन्दर श्रेष्ठ चन्द्रमाको बार-बार चाटता हो। गूँगे जैसे ( अर्थरहित अस्पष्ट ) शब्दोसे ऐसा अनुराग उत्पन्न कर रहे है ( ऐसे प्रिय लगते हैं ) मानो कमलमे बंद हुए भ्रमर गुँजार कर रहे हो। सूरदासके ये स्वामी धन्य हैजिन्हे श्रीयशोदाजी और व्रजराज नन्दजीने बहुत तप करनेके बाद महान भाग्यसे ( पुत्ररुपमे ) पाया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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