श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 134

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सारंग

121
बैठी कहा मदन मोहन कौ सुंदर बदन बिलोकि।
जा कारन घूँघट पट अब लौं अँखियाँ राखी रोकि ॥1॥
फबि रहि मोर चंद्रिका माथे छबि की उठति तरंग।
मनौ अमर पति धनुष बिराजत नव जलधर के संग ॥2॥
रुचिर चारु कमनीय भाल पै कुंकुम तिलक दिए।
मानौ अखिल भुवन की सोभा राजति उदै किए ॥3॥
मनिमै जटित लोल कुंडल की आभा झलकति गंड।
मनौ कमल ऊपर दिनकर की पसरी किरन प्रचंड ॥4॥
भ्रकुटी कुटिल निकट नैननि के चपल होति इहि भाँति।
मनौ तामरस के सँग खेलत बाल भृंग की पाँति ॥5॥
कोमल स्याम कुटिल अलकावलि ललित कपोलन तीर।
मनौ सुभग इंदीबर ऊपर मधुपनि की अति भीर ॥6॥
अरुन अधर नासिका निकाई बदत परसपर होड।
सूर सुमनसा भई पाँगुरी निरखि डगमगे गोड ॥7॥

( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! बैठी क्या हो मदनमोहनका सुन्दर मुख देखो जिसके लिये अपने नेत्रोंको घूँघटके वस्त्रसे ( तुमने ) रोक रखा था ( कि उसे छोडकर और किसीको नही देखना है ) । मयुरपिच्छकी चन्द्रिका मस्तकपर छटा दे रही है ( और ) उससे सौन्दर्यकी तरंगे ( ऐसी ) उठ रही है मानो इंद्रधनुष नवीन मेघके साथ शोभा दे रहा हो । मनोहर ललाटपर कुंकुमका अत्यन्त सुन्दर तिलक लगाये है ( वह ऐसा लगता है ) मानो समस्त लोकोंकी सुन्दरता प्रकट होकर सुशोभित हो । मणिजटित चञ्चल कुण्डलोंकी कान्ति गण्डस्थलपर ( ऐसी ) झलक रही है मानो कमलके ऊपर सूर्यकी तीक्ष्ण किरणे फैली हो । नेत्रोंके पास टेढी भौंहे इस प्रकार चञ्चल होती है मानो भौंरोंके बच्चोंकी पंक्ति कमलके साथ खेल रही हो । मनोहर कपोलोंके पास ( जो ) कोमल काली घुँघराली अलके है मानो सुन्दर नील कमलपर भौंरोकी अत्यन्त भीड हो । लाल-लाल ओठ और नासिकाकी सुन्दरता परस्पर होड बद रही है ( कि हम दोनोमे कौन सुन्दर है ) । सूरदासजी कहते है कि मोहनको देखकर मनकी गति अत्यन्त पंगु ( स्थिर ) हो गयी और पैर डगमगाने लगे ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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