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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग121 ( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! बैठी क्या हो मदनमोहनका सुन्दर मुख देखो जिसके लिये अपने नेत्रोंको घूँघटके वस्त्रसे ( तुमने ) रोक रखा था ( कि उसे छोडकर और किसीको नही देखना है ) । मयुरपिच्छकी चन्द्रिका मस्तकपर छटा दे रही है ( और ) उससे सौन्दर्यकी तरंगे ( ऐसी ) उठ रही है मानो इंद्रधनुष नवीन मेघके साथ शोभा दे रहा हो । मनोहर ललाटपर कुंकुमका अत्यन्त सुन्दर तिलक लगाये है ( वह ऐसा लगता है ) मानो समस्त लोकोंकी सुन्दरता प्रकट होकर सुशोभित हो । मणिजटित चञ्चल कुण्डलोंकी कान्ति गण्डस्थलपर ( ऐसी ) झलक रही है मानो कमलके ऊपर सूर्यकी तीक्ष्ण किरणे फैली हो । नेत्रोंके पास टेढी भौंहे इस प्रकार चञ्चल होती है मानो भौंरोंके बच्चोंकी पंक्ति कमलके साथ खेल रही हो । मनोहर कपोलोंके पास ( जो ) कोमल काली घुँघराली अलके है मानो सुन्दर नील कमलपर भौंरोकी अत्यन्त भीड हो । लाल-लाल ओठ और नासिकाकी सुन्दरता परस्पर होड बद रही है ( कि हम दोनोमे कौन सुन्दर है ) । सूरदासजी कहते है कि मोहनको देखकर मनकी गति अत्यन्त पंगु ( स्थिर ) हो गयी और पैर डगमगाने लगे । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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