श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 130

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सोरठ

117
हरि मुख किधौं मोहनी माई।
बोलत बचन मंत्र सौ लागत गति मति जाति भुलाई ॥1॥
कुटिल अलक राजति भ्रुव ऊपर जहाँ तहाँ बगराई।
स्याम फाँसि मन करष्यौ हमरौ अब समुझी चतुराई ॥2॥
कुंडल ललित कपोलन झलकत इन की गति मैं पाई।
सूर स्याम जुबती मन मोहन ऐ सँग करत सहाई ॥3॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! श्यामका मुख है अथवा मोहिनी ? ये जब ( उस मुखसे ) कुछ बोलते है तब ( उनके ) शब्द मन्त्रकी भाँति लगते ( प्रभाव करते ) है ( जिसके कारण ) सारी गति ( क्रियाशक्ति ) और बुद्धि ( विचारशक्ति ) भूल जाती है । भौंहेके ऊपर जहाँ-तहाँ बिखरी घुँघराली अलके शोभा दे रही है इन्हींमे फँसाकर श्यामने हमारा मन खींच लिया है इनकी चतुरता अब मैने समझी । मनोहर कपोलोंपर कुण्डल झलक रहे ( आभा डाल रहे ) है इनका भेद भी मैं पा गयी । सूरदासजी कहते है कि ये युवतियोंका मन मोहित करनेवाले श्यामसुन्दरके साथ रहकर उनकी सहायता करते है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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