विषय सूची
श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ114 ( गोपी कह रही है- ) सखी ! देख नेत्रोंसे कटाक्षपूर्वक देखनेकी मनोहरतासे और सुन्दर दोनो भौंहेंको मोडते हुए मोहन चित्तको चुरा रहे है । श्यामके ललाटपर चन्दनकी खौर देखनेमे अत्यन्त सुखदायक है; ( वह ऐसी लगती है ) मानो गंगा-यमुनाने आकाशमे एक साथ अपनी तिरछी धारा बहायी हो । ललाटपर लगे चन्दन तथा भौंहोंके बीच काली रेखाकी कविने एक उपमा पायी है-( ऐसा लगता है ) मानो आधे चन्द्रमाके पास सर्पिणी अमृतकी चोरी करने आयी हो । सुन्दर भौंहोंको देखकर व्रजकी सुन्दरियाँ इस प्रकार अपने मनमे विचार करती है कि सूरदासके स्वामी तो शोभाके समुद्र है उसका पार नही पा सकता । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
-
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज