श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 127

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग सोरठ

114
देखि सखी ! मोहन मन चोरत।
नैन कटाच्छ बिलोकनि मधुरी सुभग भृकुटि बिबि मोरत ॥1॥
चंदन खौर ललाट स्याम कें निरखत अति सुखदाई।
मनौ एक सँग गंग जमुन नभ तिरछी धार बहाई ॥2॥
मलजय भाल भ्रकुटि रेखा की कबि उपमा इक पाई।
मानौ अर्धचंद्र तट अहिनी सुधा चुरावन आई ॥3॥
भ्रकुटी चारु निरखि ब्रज सुंदरि यह मन करति बिचार।
सूरदास प्रभु सोभा सागर कोउ न पावत पार ॥4॥

( गोपी कह रही है- ) सखी ! देख नेत्रोंसे कटाक्षपूर्वक देखनेकी मनोहरतासे और सुन्दर दोनो भौंहेंको मोडते हुए मोहन चित्तको चुरा रहे है । श्यामके ललाटपर चन्दनकी खौर देखनेमे अत्यन्त सुखदायक है; ( वह ऐसी लगती है ) मानो गंगा-यमुनाने आकाशमे एक साथ अपनी तिरछी धारा बहायी हो । ललाटपर लगे चन्दन तथा भौंहोंके बीच काली रेखाकी कविने एक उपमा पायी है-( ऐसा लगता है ) मानो आधे चन्द्रमाके पास सर्पिणी अमृतकी चोरी करने आयी हो । सुन्दर भौंहोंको देखकर व्रजकी सुन्दरियाँ इस प्रकार अपने मनमे विचार करती है कि सूरदासके स्वामी तो शोभाके समुद्र है उसका पार नही पा सकता ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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