श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 122

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग टोडी

109
गोपी जन हरि बदन निहारति।
कुंचित अलक बिथुरि रहिं भ्रुव पै ता पै तन मन वारति ॥1॥
बदन सुधा सरसीरुह लोचन भृकुटी दोउ रखवारी।
मनौ मधुप मधु पानै आवत देखि डरत जियँ भारी ॥2॥
इक इक अलक लटकि लोचन पै यह उपमा इक आवति।
मनौ पन्नगिनि उतरि गगन तैं दल पर फन परसावति ॥3॥
मुरली अधर धरैं कल पूरत मंद मंद सुर गावत।
सूर स्याम नागरि नारिनि के चंचल चितै चुरावत ॥4॥

गोपियाँ हरिका मुख देख रही है । घुँघराली अलके भौंहेपर बिखर रही है; उनकी उस शोभापर वे अपना तन-मन न्योछावर कर रही है । अमृतपूर्ण मुखके दोनों नेत्र-कमलोंकी दोनो भौंहे ( इस प्रकार ) रक्षा कर रही है मानो भौंरे मधुपान करनेके लिये आते हुए उन्हे देखकर मनमे अत्यन्त डर रहे हो । नेत्रोंपर लटकी हुई एक-एक अलककी यह एक उपमा सूझती है मानो आकाशसे उतरकर नागिने कमलदलका ( अपने ) फणसे स्पर्श कर रही हो । ओठपर वंशी रखे उसे सुन्दर ध्वनिसे पूर्ण कर रहे है और मन्द-मन्द स्वरमे गा रहे है । सूरदासजी कहते है कि ( इस प्रकार ) श्यामसुन्दर चतुर स्त्रियोंके चञ्चल चित्तको चुरा रहे है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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