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श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिहागरौ104 ( गोपी कह रही है- ) अरी सखी ! जब मोहन सुन्दर बचन बोलते हुए आते है तब पता नही लगता कि मेरे सारे शरीरमे कान है या नेत्र । उनके शब्द मेरे रोम-रोममे सुनायी देते है और ( उन्हे देखनेके लिये ) नखसे चोटीतक ( पूरा देह ) नेत्रोंका निवास बन जाता है । इतनेपर भी विश्वास कर मैने उनकी वाणीकी चपलता नही सुनी और न उनका संकेत ही समझ सकी । तभीसे चित्रकी भाँति स्तम्भित ( ठिठकी ) -सी हो रही हूँ और एक पल भी चित्तको शान्ति नही है सूरदासजी ( तुम भी ) सुनो-यह सुनना ( मेरा ) सच्चा है या भ्रम है अथवा ( मैने मोहनका ) रात्रिमे स्वप्न देखा है । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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