श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 117

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग बिहागरौ

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सुंदर बोलत आवत बैन।
ना जानौ तिहि समै सखी री सब तन स्त्रवन कि नैन ॥1॥
रोम रोम मैं सब्द सुरति की नख सिख लौं चख ऐन।
इते मान बानी चंचलता सुनी न समुझी सैन ॥2॥
तब तकि जकि ह्वै रही चित्र सी पल न लगत चित चैन।
सुनौ सूर यह साँच कि संभ्रम सुपन किधौं दिठ रैन ॥3॥

( गोपी कह रही है- ) अरी सखी ! जब मोहन सुन्दर बचन बोलते हुए आते है तब पता नही लगता कि मेरे सारे शरीरमे कान है या नेत्र । उनके शब्द मेरे रोम-रोममे सुनायी देते है और ( उन्हे देखनेके लिये ) नखसे चोटीतक ( पूरा देह ) नेत्रोंका निवास बन जाता है । इतनेपर भी विश्वास कर मैने उनकी वाणीकी चपलता नही सुनी और न उनका संकेत ही समझ सकी । तभीसे चित्रकी भाँति स्तम्भित ( ठिठकी ) -सी हो रही हूँ और एक पल भी चित्तको शान्ति नही है सूरदासजी ( तुम भी ) सुनो-यह सुनना ( मेरा ) सच्चा है या भ्रम है अथवा ( मैने मोहनका ) रात्रिमे स्वप्न देखा है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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