श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 112

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

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राग केदारौ

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देखि री नवल नंदकिसोर ।
लकुट सौं लपटाई ठाढे जुबती जन मन चोर ॥1॥
चारु लोचन हँसि बिलोकनि देखि कैं चित भोर।
मोहिनी मोहन लगावत लटकि मुकुट झकोर ॥2॥
स्त्रवन धुनि सुनि नाद पोहत करत हिरदै फोर।
सूर अंग त्रिभंग सुंदर छबि निरखि तृन तोर ॥3॥

( गोपी कह रही है- ) ’ सखी ! नवल नन्दकिशोरको देख ( जो ) ये युवतियोंके मनको चुरानेवाले ( किस प्रकार ) लाठीसे लिपटकर खडे है । इनके मनोहर नेत्रोंसे हँसते हुए देखनेकी भंगी देखकर चित्त मुग्ध हो जाता है और ये मोहन मुकुटकी झकोरके साथ लटककर कुछ मोहिनी-सी डाल जाते है । कानोंमे पैठकर इनकी यह वंशी -ध्वनि हृदयको बेध देती है ( उसमे छेद कर देती है उसे अपनेमे गूँथ लेती है ) । सूरदासजी कहते है- त्रिभंगसुन्दर ( श्यामके ) श्रीअंगकी शोभा देखकर गोपियाँ ( उसे नजरसे बचानेके लिये ) तृण तोडती है ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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