श्रीकृष्ण माधुरी पृ. 109

श्रीकृष्ण माधुरी -सूरदास

अनुवादक - सुदर्शन सिंह

Prev.png

राग गौरी

96
देखि सखि ! हरि को मुख चारु।
मनो छिडाइ लियौ नँद नंदन वा ससि कौ सत सारु ॥1॥
रुप तिलक कच कुटिल किरन छबि कुंडल कल बिस्तारु।
पत्रावलि परिवेष सुमन सरि मिल्यौ मनौ उड दारु ॥2॥
नैन चकोर बिहंग सूर सुनि पिवत न पावत पारु।
अब अंबर ऐसौ लागत है जैसी जूठौ थारु ॥3॥


( गोपी कह रही है - ) सखी ! हरिके सुन्दर मुखको देख मानो नन्दनन्दन ( के मुख ) ने ( उस आकाशस्थित ) चन्द्रमाका सच्चा ( यथार्थ ) सार भाग ( पूरा-का पूरा ) छीन लिया हो । ( चन्द्रके ) सौन्दर्यको ( आपके ) तिलकने श्यामताको कुटिल कचों ( टेढी अलकावलियों ) ने किरणोंकी शोभाको सुन्दर बडे कुण्डलोंने प्रभा ( तेज ) जो ( कपोलोंपर की गयी ) गेरुकी रचनाने ( छीन लिया ) और ( आपके कानोंके पास झूलते हुए ) फूलोंके तुर्रे ऐसे सुन्दर लग रहे है मानो तारागण ( आकाशसे ) टूटकर ( उनकी ) बराबरी करनेको आ मिले हो । सूरदासजी ( मेरे ) नेत्ररुप चकोर पक्षी ( इस मुखचन्द्रका ) अमृत पान करते हुए थकते नही अब ( तो ) आकाश ( चन्द्र ) ऐसा लगता है जैसे जूठा थाल ( हो ) ।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः