व्रज की वीथिनि वीथिनि डोलत।
मदनगुपाल सखा सँग लीन्हें, हो हो हो हो बोलत।।
ताल मृदंग बीन डफ बाँसुरि, बाजत गावत गीत।
पहिरे बसन अनेक बरन तन, नील अरुन सित, पीत।।
सुनि सब नारि निकसि ठाढ़ी भई, अपनै अपनै द्वारि।
नवसत सजे प्रफुल्लित आनन, जनु कुमुदिनी कुमारि।।
चपल नैन, अति चतुर चारु तन जनु फुलवारी लाई।
देखत ही नंदनंद परम सुख, मिलत मधुप लौ भाई।।
राखति गहि भुजबल चहुँदिसि जुरि, अतिहि प्रेम अकुलात।
मानहुँ कमल-कोष-अभिअंतर, भ्रमर भ्रमत बिनु प्रात।।
छाँड़ति भरि भायौ अपनौ करि, राजत अंग बिभाग।
मानहुँ उड़ि जु चले है अलिकुल, आस्रित अंगपराग।।
अंतर कछु न रह्यौ तिहिं औसर, अति आनंद प्रमाद।
मानहुँ प्रेम समुद्र 'सूर' बल, उमँगि तजी मरजाद।।2869।।