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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
षोेड़श शतकम्
जो गोप रमणियों के लिए रमणीय-मूर्त्ति मेघमाला की भाँति कांतियुक्त हैं एवं बिजली की भाँति पीताम्बरधारी हैं एवं राधा नाम के अक्षर मात्र को सुनते ही जिनके मुखचंद्र से अश्रु आदि क्षरा होने लगते हैं, मैं उनके मुखचन्द्र के दर्शन करने की इच्छा करता हूँ।।3।।
जो एक दूसरे की सम्मुख ही विराजमान हैं, एवं उदार नर्म्महास्ययुक्त हैं, एक दूसरे के अंगों को परस्पर अनेक छलों से हस्त द्वारा स्पर्श कर रहे हैं, परस्पर रसोल्लसित एवं पुलकांचित गौरनीलाकृति धारण कर रहे हैं एवं एक दूसरे के स्वभाव को परस्पर ग्रहण कर रहे हैं, इस प्रकार युगल विग्रह का भजन कर।।4।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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