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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पञ्चदश शतकम्
अपने चरण कमलों में विधिपूर्वक सेवा परायण हो कर असीम वैभव प्राप्त होने पर भी- उसके प्रति दृष्टिपात भी न करते हुये, ब्रह्म-पद तथा श्रोत मार्ग के प्रति भी न देखते हुये, इस श्रीवृन्दावन में अतिशय रति रस में ही मग्नचित्त जो गौरश्याम युगलकिशोर हैं, उनके आश्रित जनों का कोई अनिर्वचनीय अति दुर्बोध पन्थ है।।3।।
सखियों की सैकड़ों कर्कश शिक्षाओं से चाहे मन गाढ़तर हो गया है, किंतु प्रियतम की ओर से बार बार भेजी हुई किसी माननीय सखी द्वारा अत्यन्त प्रार्थना से आदर देने पर एवं प्रियतम के वचनों से सिखाई हुई किसी एक सखी द्वारा उनकी बस्ती श्रीवृन्दावन के कुञ्जों की प्रशंसा सुनते ही अपने आप अति शीघ्र गमन करने वाली श्रीराधा हैं- उनका भजन करो।।5।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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