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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्दश शतकम्
हाय! हाय!! मूर्ख व्यक्ति पहाड़ के समान कुल-धन एवं विद्या के गर्व पर चढ़े हुए हैं, अहो! उनको श्रीवृन्दावन माधुरी कैसे प्राप्त हो? ।।4।।
श्रीवृन्दावन के आश्रित चिद्घन स्वभाव को प्राप्त होकर भी विष्ठापात्र इस शरीर के दुरभिमान वश झूठे लोक मान के लिए मैं जो फूल रहा हूं, मैं अति कुबुद्धि हूँ। मेरे लिये धिक्कार है।।5।।
अरे! देश विदेशों में वृथा क्यों भ्रम रहा है? निरन्तर सुधा समुद्र प्रवाही श्रीराधा जीवन-बन्धु श्रीवृन्दावन चन्द्र श्री श्यामसुन्दर का आश्रय कर।।6।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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