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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
एकादश शतकम्
श्रीराधा दास्य-उपयोगी उज्ज्वल शरीर को पाकर नित्य श्रीराधा पादपद्म से सेवापरायण होकर श्रीराधा रसिक श्री श्यामसुन्दर को संतोषित करते हुए नित्य श्रीवृन्दावन में वास कर।।116।।
हे सुमुखि राधे! तुम्हारे श्रीमुख के सन्मुख रह कर ही मेरे नेत्र विकसित होकर आनन्द प्राप्त करते हैं, जैसे कुमुद-बन्धु चन्द्र ही केवल कुमुद को आनन्द दान करता है।।117।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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