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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
अष्टमं शतकम्
हाय! लोक मर्यादा व वैदिकमत की ओर कभी भी ध्यान न देकर अपने, प्रियतम युगलकिशोर के एकान्तरस से रहित हृदय वाले व्यक्तियों की अपेक्षा छोड़कर अतीव धन्य भाग होकर एवं श्रीराधा-कृष्ण रस में बार-बार पुलकित, नित्य अश्रुधारा प्रवाहित करता हआ, तथा विचित्र प्रेम विकाशशील होकर मैं कब श्रीवृन्दावन में आनन्द प्राप्त करुँगा।।99।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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