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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र
7. नन्दनन्दन श्रीकृष्ण में अन्य अवतारों से अधिक माधुर्य तो है, परन्तु उनका रूप पूर्ण माधुर्य का अधिष्ठान नहीं है। 8. श्रीकृष्ण में पूर्ण एवं अशेष रूप से प्रेमाधीनता वे नहीं देखते। वे कहते हैं- क्योंकि यदि श्रीकृष्ण में पूर्ण प्रेमाधीनता होती तो वे रास में एक गोपी को कन्धे पर चढ़ा लेते, बिलखती हुई न छोड़ जाते। यशोदा को मुख में ब्रह्माण्ड दिखाना, गिरिराज उठाना असुर-वध तथा महारास में अनन्त रूपों में आविर्भूत होना यह सिद्ध करता है कि श्रीकृष्ण में पूर्ण-माधुर्य का सन्निवेश नहीं है। 9. श्रीकृष्ण रूप लोक-वेद की सीमाओं में आबद्ध है। अवतरित होने के कारण वह नित्य नहीं है। 10. श्रीकृष्ण की निखिल रस-आस्वादनीयता एवं अनन्तता उनका एक दूषण है। 11. श्री गोलोक बिहारी उनकी उपासना के अनुपयुक्त सिद्ध हुआ है। 12. जैसे सुमेरु पर्वत का परिचय देने के लिए स्वर्ण राशि को माध्यम बनाना पड़ता है, उसी प्रकार उनके आचार्यचरण को श्री नन्दनन्दन वृषभानुनन्दिनी को माध्यम बनाकर अपनी उपास्य जोड़ी का परिचय देना पड़ा और इस अनर्थ के कारण परिवर्ती रसिकों ने रस का रूप बिगाड़ डाला- इस प्रकार वे और भी अनेक कल्पित धारणाओं का उल्लेख कर अपने श्री आचार्यपाद का स्वरूप भी नहीं जान पाये हैं। हित चतुरासी एवं स्फुट वाणी में श्री नन्दनन्दन, श्री वृषभानु नन्दिनी, व्रजगोपाल, वृन्दावन ललितादि समस्त का नाम उल्लेख है एवं उनके उपास्य के साथ उनके पूर्ण नित्य सम्बन्ध प्रमाणित हो रहे हैं। इन समस्त निराधार कल्पनाओं का मूल आधार या कारण है ‘श्री राधारस-सुधानिधि’ पर नवीन टीका करने का दुस्साहस, जिसको वे स्वयं भी स्वीकार कर अपने को अपराधी मानते हैं। किन्तु अतिशय दुःख का विषय है कि ऐसी नवीनता किस काम की, जो कटुता, महान अपराध साम्प्रदायिक संकीर्णता, साहित्य-कुरूपता विशेषतः अशेष-विशेष रसनिधि में विष का सम्मिश्रण करे। आज के युग की मांग है स्वस्थ-साहित्य, समीचीन तथ्यों का परिवेशन तथा साम्प्रदायिक संकीर्णता रहित वैष्णव धर्मों का प्रचार-प्रसार। इन बातों का पालन करने से ही वैष्णवाचार्यों की प्रतिष्ठा, आत्मोद्धार तथा राष्ट्र एवं समाज का भला हो सकता है, अन्यथा नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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