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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
वृन्दावन में विध्न पैदा करने वाली इन्द्रियों को अंतर निरूद्ध करके, इस सम्मोहन धाम को शुद्ध चिद्ररघन विवेचना करते हुए, एव यहाँ इस शरीर का महामंगलकारी पतन (मृत्यु) व्याकुल प्राणों से नित्य आकांक्षा करते हुए, प्राणों की रक्षा के निमित्त भी भोगादि प्रयत्नों क्को त्याग कर इस श्रीवृन्दावन धाम में स्म्यक रूप से वास कर।।90।।
दिव्य दिव्य अनन्त प्रस्फुटित पुष्पों की सुगन्धि से, मत्त भ्रमरों की झंकार से, प्रति पद पद पर महानन्द सुधारस प्रस्फुटित पुष्पों की सुगन्धि वर्षण करने से, दशों दिशाओं में उडनें वाली महा रमणीय रंग-बिरंगी पराग से-परम शोभित श्रीवृन्दावन के दिव्य वृक्ष-श्रेष्ठों की मैं वन्दना करता हूँ।।91।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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