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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
अतिशय रसवश, गलीगली में भ्रमणशील, उन्मादय आनंद के लिए चंचल, पथ-पथ में बार-बार अंगो पर पतनशील भ्रमरों को दूर करने वाले, पुनः-पुनः हास्य युक्त हाव-भाव से एक दूसरे के अंग पर अंग धारण करने वाले गौरनीलद्युति श्रीयुगल-विग्रह (श्रीराधा-कृष्ण) का भजन कर एवं श्रीवृन्दावन में वास कर ।।80।।
जिसने श्रीवृन्दावन का आसरा लिया है, उसे कर्म या अकर्म तापित नहीं कर सकते, उसे माया स्पर्श नहीं कर सकती, एवं सकल महागुण राशि उसका भजन करते हैं। सब सम्पदा उसी की आकाँक्षा करती हैं, ब्रह्मादि देवता उसकी स्तुति करते हैं। और श्रीराधामाधव आनन्दपूर्वक उसे अपने निकटवर्ती गणों में अन्यतम गणना करते हैं।।81। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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