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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
हाय! बल, दया आदि से समस्त उपेक्षामय बुद्धि धारण करते हुए, माया की श्रृंखलाओं को ताड़ने में निपुण हुआ, तथा राक्षस को देखने से जैसे कोई अति मृतकवत् हो जाए, उसी तरह नारी दर्शन करने से मृतकवत् होकर एवं क्षोभ-रहित चित्त से हर स्थल पर देह-रक्षा उपयोगी अन्नादि पदार्थों को संग्रह कर, पृथ्वी की भाँति सर्व सहनशील हो कर कब मैं श्रीवृन्दावन में वास कर सकूँगा?।।76।।
श्रीराधामुरलीधर के सुन्दर केलिवृन्द का गान करते करते, हृदय में उसके अनुभवानन्द जनित निष्पन्द भावस को प्राप्त होकर समस्त भोग-विलासादिकों की निन्दा करते हुए ‘‘हा प्रिय श्यामल!!’’ कह कर उच्च स्वर से रुदन करता हुआ कब इस श्रीवृन्दावन में परम विकल होकर मैं वास कर सकूँगा।।77।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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