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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
इस संसार में कामिनी के दर्शनमात्र से ही लोक लज्जादि सब कुछ कौन नही त्याग कर सकता? अहो! शास्त्र गुरु आदि भी स्त्री-आसक्त पुरुष को किसी भी प्रकार रोक नहीं सकते! अतएव कामाग्नि से यदि मरने का भय लगता है, एवं अपनी निन्दा को सहन नहीं कर सकते, तो इस शरीर को बलात् से श्रीवृन्दावन में लाकर मोर-पुच्छधारी श्रीकृष्ण के आद्य-मधुर भाव का अनुभव कर।।74।।
‘‘स्त्री’’ सूचक शब्द से भी काम मुझे अन्ध बुद्धि कर देता है, इस क्रोध ने समस्त दिशाओं में अन्धकार कर रखा है, एवं लोभ निरन्तर ही मन को क्षुब्ध किए रखता है। हाय! श्रीधाम श्रीवृन्दावन में भी इनका नाश हुआ नहीं! अतः बलपूर्वक इस शरीर का पात ही करना होगा।।75।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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