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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
हथेली पर धरे हुए कपोल को अश्रुधारा से निरन्तर होता हुआ, ‘‘हा मुरलीधर’’ पुकारते हुए बार-बार रुदन करता हुआ श्रीवृन्दावन के किसी एक निर्जन वृक्ष के नीचे बैठकर- मैं श्रृंगार रसाश्रय होकर प्राणों की रक्षा करने की चेष्टा भी कुछ न करके कब श्रीवृन्दावन वास करूँगा।।72।।
जो (जो मनुष्य) श्रीहरि की प्रीति में स्त्री जाति को व्याघ्रिवत् स्वादिष्ट-अन्न को विष के समान धन को महा अनर्थवत् और, असाधु लोगों के संघ को सर्वस्व नाश करने वाले के तुल्य थोड़े मात्र संग्रह को भी (महानिष्टकारी) ग्रहवत् एवं अपनी इन्द्रियों को शत्रु के समान जान सकता है- वही इस श्रीवृन्दावन में उत्तमरूप से वास कर सकता है।।73।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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