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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
पंचमं शतकम्
नन्दनवन, पुष्पभद्र आदिवनों का जो सौन्दर्य है, अथवा मुक्ति-पद में जो वैभव है उससे कोटि गुण अधिक सौन्दर्य एवं वैभव से युक्त होकर अति मधुर श्रीवृन्दावन कांति विस्तार कर रहा है। केलि सौंदर्ययुक्त, अनन्त वैचित्री-रसयुक्त है एवं वेदशिरोमणि-गण भी इसकी महिमा नहीं मानते- इस वृन्दावन के वैभव को श्रीराधामाधव नित्यगान करते हैं।।39।।
ये समस्त भ्रमर नित्य मुक्तिपद में अवस्थान करते हैं, जो तुलसी आदि की सुगन्धि में अतिशय आनन्दास्वादन करते हैं, जो नन्दनवन में महा सुगन्धियुक्त पारिजातादि कुसुममूह में आनन्दलुब्ध रहते हैं एवं जिन्हे कहीं दूसरे वनों में भी आनन्द प्राप्त होता है- वे समस्त भ्रमरवृन्द अनन्त अनन्त यूथों में नित्य जिस वृन्दावन में मुग्ध होकार पड़ते हैं, उस श्रीवृन्दावन को मैं नमस्कार करता हूँ।।40।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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