विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
अननत चित् ज्योत्स्नामय रससमुद्र का प्रवाह इधर-उधर फैलकर गोलोक से अखिल (विश्व को) संप्लावित क रहा है।! यह श्रीवृन्दावन सबके ऊपर विराजमान होकर अति विमल विशाल मधुर चन्द्र के समान मेरे निकट प्रतिभाज हो रहा है।।83।।
त्रिगुणमयी माया-विरचित जगत् की बात तो सर्वथा लुप्त हो चुकी है सुखमय विष्णुलोक भी खद्योवत् और नहीं सुहाते; और क्या कहूँ? अपने सिवा अन्यान्य समस्त धामों के सुखमय भावों को पराजय करने वाला यह श्रीवृन्दावन ही अपनी कान्ति से अतिशय देदीप्यमान हो रहा है।।84।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज