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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
हे श्रीवृन्दाटवि! आप कोटि मातृवत् परम स्निग्ध-स्वभावा हो। आपके परम-आश्चर्यमय प्रभाव को रमा, शिव आदि देवतागण नित्य चिन्तन करते हैं, आप अपने पद (स्थान) का यदि दर्शन कराती हैं एवं सर्व श्रेष्ठजन भी जिस स्थान की खोज करते हैं- वह वासस्थान भी यदि होती हैं, तो फिर अपने दास्तों को सेवा दान करने में आप क्यों देर करती हो? ।।81।
अनधिकसम रूम-लावण्य, लीलान्वैग्धी आदि के द्वारा निरन्तर एक दूसरे का गाढ़ानुराग बढ़ाने वाले, आनन्दघन समुद्र की चमत्करी रस-धारा बरसाने वाले, नित्य श्रीवृन्दावन में विराजमान श्रीराधाकृष्ण की आनन्दपूर्वक सेवा कर।।82।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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