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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
लक्ष्मी आदि देवीगण भी श्रीराधा के चरणकमलों की सेवा की आशा तक भी नहीं कर सकतीं, किन्तु हे वृन्दावन! मैं आपके प्रभाव से किसी भी भाव-योग से प्रबल इच्छुक हो रहा हूँ।।70।।
हे विमूढ्! लक्ष्मी आदि के लिये भी सुदुर्लभ इस श्रीवृन्दावन को त्यागकर कहाँ जाता है? यहाँ ही तो सर्वाधीश्वर का ऐश्वर्य, परम अमृत एवं सुदुर्लभ भक्ति समूह मिलते हैं।।71।।
हरि! हरि!! (आश्चर्य में) श्रीहरि तथा श्रीराधा की नित्यस्थायी कामरंगमय, मधुरातिमधुर आनन्दघन उच्च तरंगों युक्त इस श्रीवन्दावन की कुंजों के भीतर आपके (वृन्दावन के) बहुविध रूपादि की स्फूर्ति के बिना भी कोई प्रवेश कर सकता है? ।।72।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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