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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
यदि कान इस (श्रीवृन्दावन) के दोषों को सुनों, तो उनमें कील गड़वा देना उचित है, यदि जिह्व भूल कर उन (दोषों) का उच्चारण करे, तो हव काट देने योग्य है, यदि नेत्र उन (दोषों) को देखें, तो उनको निकलवा देना चाहिये, यदि मन में इन (दोषों) का विश्वास जम जाये, तो प्राण त्याग करना ही कर्तव्य है, वे समस्त कानादि (इन्द्रियगण) चण्डालीवत् अस्पृश्य एवं त्यागने योग्य हैं- क्योंकि यह श्रीवृन्दावन-धाम तो परमतम-महत्तम वस्तु है।।54।।
हे श्रीवृन्दावन! मैं चन्द्र में भी ऐसा सुख प्राप्त नहीं करता हूँ- क्योंकि तुम्हारा एक रजकण भी स्वर्ण की वेश्यागणों के (संग) सुख को भी अति तुच्छ बना देता है।।55।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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