विषय सूची
श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
श्रीवृन्दावन अनूर्ध्वसमान (जिसके समान एवं जिससे अधिक कोई नहीं) धाम है, समस्त रसों के सार अनूध्र्व समान श्रीराधा-कृष्ण सर्व शिरोमणि ही हमारी एक मात्र गति हैं। अपने प्राणेश्वर युगलकिशोर के क्रीडारंग को वह अनूध्र्व समान मोहिनी सखी वैदग्धी (चतुरता) के द्वारा निरन्तर परिपुष्ट कर रही है।।23।।
अहो मूर्खता! अहो अज्ञता!! अहो ऐसा दुर्भाग्य!!। जो (सांसारिक) महान व्यक्ति होते हुए भी महानन्द स्वरूप इस श्रीवृन्दावन में मेरा प्रेम नहीं हुए।।24।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज