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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
चतुर्थं शतकम्
जो लज्जायुक्त मृदु मधुर मुसकानरूप ज्योत्स्ना प्रकाश की चमत्कारिता के द्वारा एवं सुशीतल अमृतरस-बिन्दुओं से भी अधिक स्वादिष्ट आलापादि के द्वारा मन हरण करती हैं, प्रकाश्यमान दाड़िम केक फूल की भाँति कान्तिमय अधरों के असीम माधुर्य से मण्डित हो रही हैं, एवं लावण्यामृतपूर्ण सुन्दर चिबुक पर एक श्याम-बिन्दु धारण कर परम शोभायमान हो रही हैं-।।9।।
अति स्निग्ध सुकोमल विशाल महालावण्य-वन्यामय गण्डस्थलों की शोभा स्वर्ण जड़ित दर्पण में प्रतिबिम्बित होकर प्रकाशित हो रही है। जिनकी मुक्तावत अनुपम सुन्दर दन्तपंक्ति ताम्बूल की लालीयुक्त होकर अति सुपक्व दाड़िम (अनार) के दानों की भाँति अति सुन्दर शोभा दे रही है- ।।10।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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