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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
जहाँ श्रीराधाकृष्णवत ही (अतुलनीय) श्रीराधा-कृष्ण सदा रमण करते हैं (अथवा आसक्तचित्त होकर विराजते हैं) उसी अति मधुर श्रीवृन्दावनवत श्रीवृन्दावन की मैं वन्दना करता हूँ।।95।।
मायिक तीन गुणों से पार काई एक (अनिर्वचनीय) परम (ब्रह्म) ज्योति प्रकाशित है, वह (ब्रह्म) गाढ़ानन्दात्मक है, आपार है, अमल है, विद्यारहस्य से पूर्ण एवं महत् है। उसके ऊपर आद्यप्रेम रसात्मक (श्रृंगारसात्मक) सुचमत्कार-जनक महामाधुर्यराशियुक्त परम दीप्तिमय श्रीधाम वृन्दावन विराजमान हैं।।96।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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