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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
किसी एक (श्रीश्यामसुन्दर) के केशों को देखकर कोई दूसरा (श्रीराधा) लज्जित होता है, और कोई किसी के मनोहर मुख को देखकर लज्जित होता है- इसी भाव में एक के स्तनयुगल, दूसरे के नेत्रयुगल एक के दसन व अधर एवं दूसरे की कांति-मंजरी (को देखकर एक दूसरे को लज्जा होती है) इस प्रकार निकुंज में श्रीश्यामसुन्दर के अंक में भूषणस्वरूपा महा-आश्चर्यमय हेमगौरी (श्रीराधा) मेरी चित्त में स्फिुरित हों ।।81।।
जिसके अंग नवकिशोर हैं, जिसकी स्वर्णवत् कांति है, जो नवीन काम की भंगी की चंचलता युक्त है, जिसकी नित्य ही आश्चर्यमय शोभावृद्धि है एवं जो अति महान प्रेम-वैवश्य से मन को हरण करती है- अहो! जिसने अपनी शोभा से दिन्य माला, वस्त्र, भूषणादिकों को अशेष सौभाग्य मण्डित किया है एवं सखियों को भी जिसने चित्रवत कर दिया है, वह मेरा सर्वस्व-धन श्रीराधा जो श्रीवृन्दावन धाम में मुझे दर्शन दें- यही प्रार्थना है।।82।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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