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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
तृतीय शतकम्
तैलादि मर्दन, बिना वस्त्र स्नान, तीर्थ क्रियादि, भोजन, उत्तम सुगन्धि-माल्यादि तथा मधुर पान-वीठिकादि का ग्रहण संगीतानुभव एवं श्यामसुन्दर के साथ एकत्र शयन तथा ब्रज-वधू-शिरोमणि श्रीराधा के चरणों की श्रीसखियों के द्वारा सेवा आदि- श्रीवृन्दावन की इन लीलाओं का स्मरण कर।।77।।
जिसकी दासी की एक बार अंग छछा को देक्षकर पार्वती, उर्वशी तथा और किसी रतिमती सुन्दरी की तो बात ही दूर- स्वयं मोहिनी में भी मेरी बुद्धि आश्चर्य नहीं, मानती महा सम्मोहन श्रीश्यामसुन्दर के मन को भी मोहित करने वाली वह श्रीवृन्दावनाधीश्वरी (श्रीराधा) मेरे हृदय में स्फुरति हों।।78।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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