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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
परस्पर न्यस्त-प्राण, स्नान, भोजन एवं शयनादि में भी सर्वदा अविच्छिन्न, नव नव प्रचुर अनुराग वश श्रीवृन्दावन के नव नव निकुञ्जों में सदा खेलन-परायण उन मधुर मधुर गौर-श्यामाकृति श्री युगल किशोर का भजन कर।।63।।
उद्दाम अनंग-रंग-रस के कारण परस्पर मिलन में मनोरम, अविच्छिन्न विविध नृत्य, गीतादि के द्वारा एवं यौवन-रस के नानाविध मधुर तथा चमत्कार कारी दीप्ति-लावण्य के द्वारा आपस में अतिशय आसक्ति के कारण निमिष मात्र के विरह से भी आर्त्ति-मूर्त्ति धारण करने वाले पूर्ण रस-स्वरूप गौरश्याम युगल का श्रीवृन्दावन की गलियों में भजन कर।।64। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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