वृन्दावन महिमामृत -श्यामदास पृ. 12

श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास

श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र

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भक्ति के माधर्यु, साध्य के आकर्षकत्व एवं जीव के जीवत्व का क्या स्वरूप है- जब इस रहस्य को उन्होंने रसराज-महाभाव स्वरूप् श्री गौर सुन्दर की मधुर वाणी में सर्वप्रथम सुना तो उनके मन में महाप्रभु के प्रति प्रगाढ़ ममता एवं महान श्रद्धा आ उदय हो आया। श्री महाप्रभु की पहले अन्याय एवं अज्ञतापूर्वक जो अशेष निन्दा की थी, उससे उनका मन अनुतापानल में दग्ध होने लगा

श्री सरस्वती पाद ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की- “हे गौरांग! आपने जो मधुर वचनामृत-धारा वर्षा की है, उससे हमारे शुष्क हृदय-प्रांगण प्रफुल्लित हो उठे हैं। आपने जो कहा है, वह समस्त सत्य है, परम सत्य है। हमने आपके स्वरूप को जानकर आपकी बहुत निन्दा की है, आप तो साक्षात वेदमूर्त्ति श्री नारायण स्वरूप हैं, हे गौर कृष्ण! आप हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए।”

यह सुनकर समस्त सभा आनन्द से उल्लसित हो उठी, “हरि बोल” “हरि बोल” की उच्च ध्वनि से आकाश-वातास गूंज उठा। गौर भक्तों के आनन्द का तो कहना ही क्या? समस्त काशी श्री हरिनाम से मुखरित हो उठी। तत्पश्चात श्री महाप्रभु को मध्य में विराजमान कर समस्त संन्यासी समुदाय ने भोजन किया एवं श्री महाप्रभु भक्तों सहित अपने वास स्थान पर पधारे। संन्यासी समाज में श्री महाप्रभु ने जो अपूर्व तत्त्व-व्याख्या की, समस्त काशी में एवं विशेषतः संन्यासियों में यत्र-तत्र उस विषय की विषद आलोचना होने लगी। सरस्वती पाद के प्रधान प्रधान शिष्य कहने लगे कि श्रीकृष्ण चैतन्य के मुख-कमल से ही हमने वेदों के प्रकृत तात्पर्य को सर्वप्रथम जाना है। सरस्वती पाद ने कहा - “श्री शंकराचार्य का उद्देश्य अद्वैत मत स्थापन करना था। उसी संकल्प को लेकर उन्होंने सूत्रों का यह विकृत अर्थ किया है। वस्तुतः भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य के मुख से प्रकृत अर्थों को सुनकर अब हमारे लिए कुछ भी जानने योग्य बाकी नहीं रहा है।”

सरस्वती पाद का वज्र के समान हृदय द्रवीभूत हो गया एवं वे भक्ति जात एक अनिर्वचनीय नवीन सुख सिन्धु में निमग्न हो गये। निशिदिन उनके नेत्रों में, हृदय में जागते-सोते, खाते-पीते में भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य ही घूमने लगे। अपनी इस अवस्था का चित्र उन्होंने अपने इस श्लोक में खींचा है -
सान्द्रानन्दोज्ज्वलनवरसप्रेमीपीयूषसिन्धोः
कोटिं वर्षन् कनककदलीगर्भगौरांगयष्टि-
श्चेतोऽकस्मान्मम निजपदे गाढ़मुंप्त चकार।।[1]

“जिसके अंग सुवर्ण कदलीवत गौरकांति विशिष्ट हैं, जो करुणा रस निषिक्त कजरारे नेत्रों में महान उज्ज्वल रसमय प्रेमामृत-सिन्धु की राशि बरसा रहे हैं, ये देव कौन हैं? मेरे चित्त को क्यों अपने चरणारविन्दों में दृढ़ता पूर्वक आकर्षण कर रहे हैं?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीचैतन्यचन्द्रामृत 61

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श्रीवृन्दावन महिमामृतम्‌ -श्यामदास
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. परिव्राजकाचार्य श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद का जीवन-चरित्र 1
2. व्रजविभूति श्री श्यामदास 33
3. परिचय 34
4. प्रथमं शतकम्‌ 46
5. द्वितीय शतकम्‌ 90
6. तृतीयं शतकम्‌ 135
7. चतुर्थं शतकम्‌ 185
8. पंचमं शतकम्‌ 235
9. पष्ठ शतकम्‌ 280
10. सप्तमं शतकम्‌ 328
11. अष्टमं शतकम्‌ 368
12. नवमं शतकम्‌ 406
13. दशमं शतकम्‌ 451
14. एकादश शतकम्‌ 500
15. द्वादश शतकम्‌ 552
16. त्रयोदश शतकम्‌ 598
17. चतुर्दश शतकम्‌ 646
18. पञ्चदश शतकम्‌ 694
19. षोड़श शतकम्‌ 745
20. सप्तदश शतकम्‌ 791
21. अंतिम पृष्ठ 907

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