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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
इस श्रीवृन्दावन में प्रीति करने वाला पुरुष, धनसम्पत्ति के द्वारा कोटि-कोटि कुबेरों का भी उपहास करता है, बुद्धि-सम्पत्ति के द्वारा देवताओं के गुरु वृहस्पति का भी तिरस्कार कर सकता है, और स्त्री-पुत्रादि कुटुम्बी भी उसके लिये शोक नहीं करते हैं, वह श्री हरि-रस विषय में श्री शुक-प्रह्लादादिकों द्वारा भी प्रशंसनीय है।।51।।
गृह-द्वार स्वर्ण गुण युक्त स्त्री-पुत्रादि सब को त्याग कर एवं सर्वत्र महान सम्मान तथा बड़े-बड़े सत्कुलाचार धर्मादि को तिलाञ्जली देकर, माता-पिता एवं गुरुजनों के आग्रह में जरा भी कोमल चित्त न होकर जो श्रीवृन्दावन जा सकता है, सब लोक उसकी प्रशंसा करते हैं एवं उसे धन्यवाद देते हैं।।52।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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