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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
अनन्त रति शाली मनोहर कान्ति युक्त तथा विलास-सम्मोहित उन महारसिक नागर अद्भुत श्री युगलकिशोर के विचित्र रति लीला हित नित्य नवीन निकुञ्जों में विहार परायण महा प्रीति रस में धूर्णित विग्रह-युगल को मैं स्मरण करती हूँ।।47।।
महासरस दिव्य नेत्रधारी तथा वृन्दावन वासी मेरे सम्मुख स्वर्ण चम्पक कान्ति एवं नील कमल को निन्दित करने वाले रूप विशिष्ट नव किशोर-दम्पती की एक दूसरे के प्रति अगाध भाव युक्त कामदेव-विमोहित मूर्त्ति कब स्फुरित होगी? ।।48।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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