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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
हे सखे! इस संसार में कितने नरक भोग नहीं किये हैं? कितने-कितने ब्रह्मा, इन्द्र आदि के अतुल सुख-भोगादि का तिरस्कार नहीं किया है? अतएव इस वर्तमान एक शरीर के सुख-दुख को न गिनता हुआ सदा परम सार श्रीवृन्दावन में वास कर।।26।।
श्री वृन्दावन-वासियों की चरण-धूलि में सर्वांगों को धूसरित करके एक मात्र उज्ज्वलतम श्री वृन्दावन को ही सर्वोपरि जानते हुए, श्री वृन्दावन के माधुर्य में सर्वदा श्री राधा कृष्ण का आवेश अनुस्मरण करते-करते श्री धाम वृन्दावन में ही वास कर।।27।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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