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श्रीवृन्दावन महिमामृतम् -श्यामदास
द्वितीयं शतकम्
निरन्तर गुणों का वर्णन करता हुआ श्रीवृन्दावन में इतस्ततः भ्रमण करते-करते नाचता गाता हुआ, प्रेम में पुलकितांग होकर ब्रजरज में लुण्ठन पूर्वक सब ग्रन्थियों को तोड़ कर एवं स्फूर्ति-प्राप्त अत्युत्तम रसमयी उपासना की निपुणता को प्राप्त कर कब मैं धन्य-शिरोमणि हूंगा? ।।24।।
जहाँ सौंदर्यादि के चमत्कार का समुद्र है एवं गौर-श्याम-विग्रह महाकान्तिशाली दिव्य युगलकिशोर निशिदिन क्रीड़ा कर रहे हैं, जहाँ समस्त अप्राकृत वनों का गुण-समूह चरम काष्ठा को प्राप्तु हुआ है- उस श्रीवृन्दावन को मैं कब मधुर प्रेम की अनुवृत्ति के द्वारा भजन करूंगा? ।।25।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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